Saturday, November 23, 2019

सोम, शराब और वेद

सोम, शराब और वेद

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BY AGNIVEER
January 8, 2016


यह लेख इस लांछन का खंडन करता है कि वेदों में वर्णित ‘सोम’- कोई मादक पदार्थ या शराब है। वेदों की बढती लोकप्रियता से तिलमिलाकर इस तरह के ओछे वार किये जा रहे हैं। हम इस चुनौती को स्वीकार कर, सच्चाई यहाँ दे रहे हैं –

आरोप:
सभी प्रसिद्ध विद्वानों की राय में वेद ‘सोम’ या नशे के सेवन को कहते हैं और सभी वैदिक ऋषि ‘सोम’ का सेवन करते थे।

अग्निवीर:
इस में तो शिकायत की कोई बात नहीं, यह हकीकत है। यह सच है कि वेद सोम के गुण गाते हैं और ऋषि लोग भी सोम ही के दिवाने थे। यही बात वेदों को अधिक प्रशंसनीय बनाती है। वेदों की इस सच्चाई पर विश्व प्रसिद्ध विद्वान् भी मुग्ध हैं और हम भी इससे वशीभूत होकर पूरी दुनिया में इस ‘सोम पान’ को फ़ैलाना चाहते हैं।

हां, यह समझा जाना चाहिए कि ‘सोम’ का यह नशा कोई सामान्य नशा नहीं है। यह नशा श्रेष्ट आत्माओं को विश्व कल्याण में अपना सब कुछ न्यौछावर करने और सतत संघर्ष की प्रेरणा देने वाला नशा है। जीवन के कठोरतम समय और भयंकर दुःख को भी हंसकर सहने की शक्ति देने वाला नशा है।

सोम के अनेक अर्थ:
सोम के अनेक अर्थ हैं। मूलतः उसका अर्थ है ऐसी चीज़ जो प्रसन्नता, शांति, तनाव से मुक्ति और उत्साह देने वाली हो। क्योंकि बुद्धि भ्रष्ट लोगों को शराब भी प्रसन्नता देती है, संभव है कि इसीलिए बाद के काल में ‘सोम’ शब्द को शराब या मादक द्रव्य के पर्याय में प्रचलित कर दिया गया हो। जैसे भूखा कुत्ता हर जगह मांस ही देखता है वैसे ही नशा करने वाले ‘सोम’ शब्द में नशीली चीज़ों को खोजते हैं।

सोम के कुछ वैकल्पिक अर्थ:
‘सोम’ चंद्रमा को भी कहा जाता है क्योंकि उसकी किरणें शीतलता प्रदान करती हैं। इसलिए चंद्रमा का वार- सोमवार। यदि सोम को शराब या मादक द्रव्य कहा जाये तो चाँद को क्या कहेंगे, मयख़ाना?

शांत और स्नेहशील व्यक्ति ‘सौम्य’ कहलाते हैं। यदि सोम मतलब नशीला द्रव्य होता तो भारतवर्ष के विभिन्न प्रान्तों में लोग अपने बच्चों का नाम ‘सौम्य’ या ‘सौम्या’ क्यों रखते? इसी तरह मराठी,गुजराती, कन्नड, बंगाली, मलयालम इत्यादि भाषाओँ के शब्दकोशों में ‘सोम’ शब्द से बनने वाले कई शब्द मिलेंगे जिनका अर्थ सौहार्दपूर्ण, शांत, अनुकूल इत्यादि है।

‘सोमनाथ’ गुजरात का सुप्रसिद्ध मंदिर है (जिसे बर्बर आक्रमणकारी मुहम्मद गजनी ने लूटा था) यदि सोम का संबंध किसी नशा कारक चीज़ से होता तो इसका नाम ‘सोमनाथ’ नहीं होता। यहाँ सोम का मतलब है सौम्य, शांति देने वाला नाथ या चन्द्र के स्वामी का मंदिर।

तनाव-शमन करने वाली और आयुवर्धक कुछ औषधियां भी ‘सोम’ कहलाती हैं। जैसे यह औषधि लताएँ ‘सोमवल्ली’ कहलाती हैं- गिलोय या अमृता (*Tinospora *cordifolia ) यह शरीर में शीतलता लाती है और ह्रदय रोगों में लाभकारी है। ब्राह्मी (*Centella asiatica)* यह स्मृति और बुद्धिवर्धक तथा मस्तिष्क के लिए शीतल और अत्यंत लाभदायक है। सुदर्शन या मधुपर्णिका (C*rinum latifolium*) यह ज्वर, रक्तविकार, वातरोग और विष नाशक है। सोमलता या सौम्या (Sarcostemma brevistigma* ) *यह अस्थमा,गठिया तथा संक्रमित रोगों के उपचार में प्रयोग की जाती है।
अस्मानिया या सोम (*Ephedra gerardiana*) नामक यह पौधा अस्थमा,ह्रदय रोग और वात व्याधि की औषधि है। इन में से किसी भी औषधि से शराब नहीं बनती, इन का रस नशाकारी नहीं है।

वेदों में सोम का प्रधान अर्थ:

वेदों में सोम का अर्थ मुख्य रूप से संतोष, शांति, आनंद और व्यापक दृष्टि प्रदान करने वाला ईश्वर है। कुछ ही स्थानों पर खास तौर से अथर्ववेद में ‘सोम’ शब्द कुछ औषधियों के लिए प्रयुक्त हुआ है। लेकिन, उसका वर्णन किसी सांसारिक नशीले पदार्थ के रूप में कहीं भी नहीं है।

ऋग्वेद १*.*९१*.*२२ – हे सोम, आप ही हमारे लिए आरोग्य देने वाली औषधियाँ उत्पन्न करते हो, आप ही हमारी प्यास बुझाने वाले पानी को बनाते हो, आप ही सब गतिमान पिण्डों, इन्द्रियों, प्राणियों का निर्माण करते हो और हमें जीवन भी देते हो। आप ही ब्रह्माण्ड को विस्तार देते हो और अंधकार को दूर भगाने के लिए आप ही इस जगत को प्रकाशित करते हो।

अब कोई बेवकूफ़ ही हो सकता है, जो यह कहे कि सोम कोई नशाकारी पदार्थ या शराब है क्योंकि ब्रह्मांड और नक्षत्रों का रचयिता, जीवन और सभी पदार्थों का निर्माण करने वाला- ‘सोम’ स्पष्ट रूप से परम पिता परमेश्वर के लिए ही है।
अतः सोम का नशा माने केवल और केवल ईश्वर के निर्देशों पर ही चलना, हर वस्तु में ईश्वर को ही देखना और उसी से प्रेरणा प्राप्त करना, संसार और इन्द्रियों के दबाव में न झुकना, अंतरात्मा की आवाज़ ही सुनना और अपनी सभी पुरानी आदतों, वृत्तियों और अहं का त्याग कर पूर्ण रूप से ईश्वर के आधीन हो जाना।

इसे हम अतिचालकता (superconductivity) के इस सिद्धांत से समझ सकते हैं कि अतिचालक पदार्थ का ताप, क्रान्तिक ताप (threshold temp.) से नीचे ले जाने पर, इसकी प्रतिरोधकता (resistance) तेजी से शून्य हो जाती है। अतिचालक तार से बने हुए किसी बंद परिपथ की विद्युत धारा, किसी विद्युत स्रोत के बिना सदा के लिए स्थिर रह सकती है। इसी तरह, जब हम अपनी अंतरात्मा की पुकार को ही सुनने के पूर्ण अभ्यस्त हो जायेंगे, तभी उसी क्षण से यह विश्व हमें प्रकाशमान, ताजगी भरा, आनंदित और ईश कृपा से भरपूर नजर आने लगेगा। इसी उच्च अवस्था को जब योगी सतत पूर्ण रूप से ईश्वर से जुडा होता है – सोम का नशा कहते हैं। इसी का वर्णन वेदों में विस्तार से दिया गया है।

ध्यान की इन्हीं उच्चतम अवस्थाओं में पहुँच कर ऋषि लोग ईश्वर से प्रेरित हो अपने ज्ञान नेत्रों से वेद मन्त्रों के अर्थ ‘देखते’ थे अर्थात- ‘जानते’ थे। यह तेजोमय अवस्था प्राप्त कर के ही कोई- ‘ऋषि’ या ‘ऋषिका’ बन सकता था।

आयुर्वेद नशा कारक या मादक पदार्थ की परिभाषा में स्पष्ट कहता है:
वह पदार्थ जिससे बुद्धि का नाश हो, उसे मादक पदार्थ कहते हैं। (शारंगधर ४*.*२१)

आयुर्वेद में नशा करने वाली बहुत सारी चीज़ों का वर्णन आता है *: *विजया (भांग,चरस), अहिफेन (अफ़ीम), गञ्जिका (गांजा), कनक (धतूरा), मधुक (महुआ), अफूकम (पोस्त), तमाल (तम्बाकू), सुरा, मदिरा, जगल, अरिष्ट, आसव, पानक, शार्कर, मैरेय इत्यादि। नशाकारी चीज़ों की नामावली में कहीं ‘सोम’ नहीं है।
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‘सोम’ को भली तरह जानने-समझने के लिए कि क्यों वह किसी सांसारिक पदार्थ या किसी रासायनिक द्रव्य या शराब या कि अन्य किसी भी तरह के नशीले पदार्थ से सर्वथा भिन्न है, आइये कुछ और मन्त्र देखें –
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ऋग्वेद ९*.*२४*.*७ – ‘सोम’ न सिर्फ स्वयं ही पवित्र है बल्कि वह अन्यों को भी पवित्र करने वाला है। वह अत्यंत मधुर और दिव्य गुणों का विकासक है। वह पाप-प्रवृत्ति का विनाशक है।

इससे कोई भी आसानी से समझ सकता है कि ‘सोम’ कोई बुद्धि कारक और आध्यात्मिक चीज़ है,शराब जैसा कोई मादक द्रव्य नहीं।

ऋग्वेद ९*.*९७*.*३६ – हे सोम, तू हमें सब ओर से पवित्र कर, हमारे अन्दर पूरे जोश से प्रविष्ट हो और हमारी वाणी को सशक्त कर। हम में उत्तम बुद्धि उत्पन्न कर।

जहाँ शराब या अन्य कोई मादक वस्तु बुद्धि को मूढ़ करने वाली है, इसके विपरीत ऋषियों का ‘सोम’ अत्यंत उच्च बुद्धि देने वाला और दिव्य कर्मों को प्रेरित करने वाला है।

ऋग्वेद ९*.*१०८*.*३ – हे सोम, तू सब को पवित्र करने वाला और सबका प्रकाशक है। तू हमें ‘अमरता’ की ओर ले चल।

अथर्ववेद १४*.*१*.*३ – सामान्य जन ‘सोम’ उसे मानते हैं जो औषधि रूप में सेवन किया जाए। परन्तु विद्वत जन जिस प्रज्ञा बुद्धि के ‘सोम’ की कामना करते हैं, सांसारिक पदार्थों में फंसे मनुष्य उसे सोच भी नहीं सकते।

सामवेद पूर्वार्चिक के पावमान पर्व में ‘वैदिक सोम’ को देखें – सोम को यहाँ उत्साह, धैर्य और साहस का देने वाला बताया गया है।

१*.*२ – हे सोम, मुझे पवित्र करो।

१*.*३ – हे सोम, तुम प्राण शक्ति और आनन्द का स्रोत हो।

१*.*४ – हे सोम, तुम्हारा नशा ग्रहण करने योग्य है।

६*.*५ – हे सोम, तुम हमारी बुद्धि को जन्म देते हो।

६*.*८- सोम के उपयोग से बुद्धि उत्पन्न करो।

७*.*१२ – बुद्धियाँ सोम की कामना करती हैं।

९*.*६ – सोम बुद्धि बढाता है।

अतः ‘सोम’ – बुद्धि दायक है, बुद्धि नाशक नहीं है।

पावमान पर्व २*.*५ ‘सोम’ को ‘चेतन’ कहता है, अतः सोम कोई जड़ पदार्थ नहीं है। यह बुद्धि दायक ‘चेतन शक्ति’ कोई और नहीं स्वयं परम पिता परमात्मा ही हैं! अतः ‘सोम’ को कोई बुद्धि नाशक दुनियावी नशीला पदार्थ मान लेना भारी भूल है।

सामवेद के इसी पर्व में सोम के कुछ और विशेषण देखिये –

३*.*२ – विचर्षणि*: *विशेषरूप से देखने वाला।

५*.*९ – विप्र*: *मेधावी।

५*.*९ – अंगिरस्तय*:* उत्तम कोटि का विद्वान्। .

९*.*१ – विचक्षण*: *प्रवीण।

८*.*४ – स्वर्विद्*: *स्वयं को जानने वाला।

२*.*१० – कवि*: *स्पष्टरूप से देखने वाला।

३*.*६ – क्रतुवित्*:* अपने कर्तव्य जानने वाला।

११*.*१ – क्रतु वित्तमो मद*: *वह नशा जो पूर्ण कर्तव्यों का भान कराए।

८*.*४ – गातुवित्तम*:* मार्ग स्पष्ट रूप से देखने वाला।

१*.*७ – दक्ष*: *कुशल।

१*.*८ – दक्ष साधन*: *कुशलता का मूल।

४*.*२ – दक्षं मयोभुवम्*:* सुख देने वाली कुशलता।

५*.*११ -वाजसातम*: *अधिक से अधिक बल देने वाला।

६*.*७ -भुवनस्य गोपा*: *संसार का रक्षक।

५*.*१ – अमरत्व पर आसीन।

६*.*३ – प्रज्ञा बुद्धियों को शाश्वत सत्य (ऋत) की ओर प्रेरित करने वाला।

६*.*२- हमसे संवाद करता है। (अंतस की आवाज़)

२*.*३ – द्वेष नाशक।

४*.*१२ – मैत्री और एकता की प्रेरणा करता है।

४*.*१४ – हिंसा और कृपणता को दूर करता है।

१०*.*११ – कुटिलता का नाश करता है।

८*.*४ – पाप-रहित।

६*.*६ – वरणीय वस्तुएं देने वाला।

६*.*१ – सबसे महान दाता।

४*.*३- अहिंसक बुद्धियों द्वारा चाहा गया।

वेदों में आये ‘सोम’ का यह तो सिर्फ छोटा सा नमूना है। इसी से स्पष्ट सिद्ध हो रहा है कि ‘सोम’- पवित्र आनंद दाता ईश्वर है और अपने आप को उसके सम्पूर्ण आधीन कर देना ही उसका नशा।

नशा और वेद*:*

वेद के लगभग हर दूसरे मन्त्र में उत्तम बुद्धि और स्वास्थ्य को बढ़ाने की कामना है और इन का नाश करने वाले पदार्थों और प्रवृत्तियों को दूर रखने की प्रार्थना। चाहे वह ‘गायत्री मन्त्र’ हो, ‘मृत्युंजय मन्त्र’ हो, ‘विश्वानि देव’ हो या और कोई, सभी मन्त्र यही दर्शाते हैं। साथ ही, वेदों में शराब, मूढ़ता और उन्माद लाने वाले सभी तरह के नशे की निंदा की गई है। कुछ उदाहरण देखें –

ऋग्वेद १०*.*५*.*६ – इन मर्यादाओं को तोड़ने वाला मनुष्य पापी बन जाता है, यास्काचार्य ‘निरुक्त’ में यह सात पाप बताते हैं*: *चोरी, व्यभिचार, अच्छे व्यक्ति की हत्या, भ्रूण हत्या, बेईमानी, बुरे कर्म बार-बार करना और शराब पीना।

ऋग्वेद ८*.*२*.*१२ – नशा करने वाले अपनी बुद्धि खो देते हैं, अंट-शंट बकते हैं, निर्वस्त्र होते और आपस में कलह करते हैं।

ऋग्वेद ७*.*८६*.*६ – अंतरात्मा की आवाज़ को सुनकर किया गया कर्म, ‘पाप’ की ओर नहीं ले जाता। परन्तु, इस आवाज़ को अनसुनी कर उसकी अवहेलना करना ही दुःख और निराशा लाता है, जो हमें नशे और जुए की ही तरह बरबाद कर देते हैं। भले और ऊँचे विचारों वाले व्यक्ति को ईश्वर प्रगति की ओर ले जाते हैं और नीच विचारों को ही चाहने वालों को अवनति की ओर। स्वप्न में भी किया गया गलत काम पतन की ओर ले
जाता है।

अथर्ववेद ६*.*७०*.*१ – कमजोर मन वाले मांस, शराब, कामुकता और व्यभिचार की तरफ खिंचते हैं। परन्तु, हे अहिंसक मन, तुम इस संसार की तरफ ऐसे देखो जैसे मां अपने बच्चे को देखती है।

संक्षेप में, नशा दुर्बलता, विफ़लता और बरबादी का कारण कहा गया है।

आरोप-
स्वामी विवेकानंद भी वेदों में नशे की बात स्वीकारते हैं- ” ये प्राचीन देवता अभद्र दिखाई देते हैं- पाशवी, कलहकारी, शराब पीने वाले, गौमांस खाने वाले जो पकते हुए मांस की गंध और शराब परोसने में ही मस्त रहते थे। कई बार इंद्र बहुत अधिक पीने की वजह से गिर पड़ता था और होश खो कर बकवास करता था। इन देवताओं के लिए अब कोई जगह नहीं है।”

(सन्दर्भ-
http://www.ramakrishnavivekananda.info/vivekananda/volume_2/jnana-yoga/maya_and_the_evolution_of_the_conception_of_god.htm
)

अग्निवीर*: स्वामी विवेकानंद के नाम से बहुत मिथ्या प्रचलित हैं। यदि आप ध्यान से देखें तो पाएंगे कि यह उद्धरण स्वामीजी के लेखनी से नहीं है, वरन उनके किसी भाषण का अनुवाद है। और यह अनुवाद उनकी महासमाधि के बाद छपा था । इसलिए इसकी प्रमाणिकता पर प्रश्न चिन्ह है ।  किन्तु यदि मान भी लिया जाये आपके हठ के कारण कि यह स्वामी विवेकानंद द्वारा ही लिखा गया है तो इससे यही पता चलता है कि उन्होंने वेदों का कोई उचित अध्ययन नहीं किया था और वेदों के बारे में उनके विचार पश्चिमी विद्वानों से प्रभावित हैं।

स्वामी विवेकानंद योगी थे, करिश्माई व्यक्तित्व के धनी थे। नवीन वेदांत पर उनका लेखन काफी प्रभावशाली है। हम भी उनका सम्मान करते हैं। परन्तु, यदि वास्तव में उन्होंने ऐसा लिखा है तो वेदों के सन्दर्भ में उन्हें प्रमाण नहीं माना जा सकता।

स्वामी विवेकानंद या अन्य किसी के कथनों को उद्धृत करने की बजाए, यह होना चाहिए कि इस विषय में हम ने जो वेद मन्त्र उद्धृत किये हैं – उनका विवेचन करें। सोचने वाली बात यह भी है कि वेद अगर गौमांस और शराब का समर्थन करते तो पारंपरिक वैदिक ब्राह्मण इन से हमेशा दूर क्यों रहते?

आरोप-

डा.राधाकृष्णन् और के.एम.मुंशी (भारतीय विद्या भवन के संस्थापक) भी वैदिक ऋषियों के शराब और गौमांस सेवन का समर्थन करते हैं।

अग्निवीर*:* हम डा.राधाकृष्णन् के बारे में आशंकित हैं पर के.एम.मुंशी ने अपने उपन्यास ‘लोपामुद्रा’ में ऐसे विचार रखे हैं। हम यही कहेंगे कि के.एम.मुंशी के कार्य हमारी प्राचीन सभ्यता और हमारे आदर्शों को कलंकित करने वाले और पूर्णतः आधार हीन हैं। उनके कई उपन्यास अश्लीलता से भरे हुए हैं। श्रीकृष्ण पर उनका
लेखन अत्यंत अपमान जनक है। लोपामुद्रा भी ऐसा ही उपन्यास है। वह राजनीतिक व्यक्ति थे। यह दुर्भाग्य ही है कि उन्होंने ऐसे विषय में प्रवेश किया जिसका उन्हें जरा भी ज्ञान नहीं था और न ही उनकी योग्यता थी।

भारतीय विद्या भवन के कार्यों ने भारतीय संस्कृति को ठेस ही पहुंचाई है और गुमराह ही किया है। कृपया पं.धर्मदेव विद्यामार्तंड द्वारा रचित ‘वेदों का यथार्थ स्वरुप’ पढ़ें जिस में- वैदिक ऐज, लोपामुद्रा और इसी तरह दूसरे झूठे पुलिंदों का विस्तार से उत्तर दिया गया है।
यह www.vaidikbooks.com पर उपलब्ध है।

चाहे डा.राधाकृष्णन् हों, के.एम.मुंशी हों, विवेकानंद हों या अन्य कोई प्रसिद्ध व्यक्ति उनके निजी विचारों से वेदों पर कोई आरोप सिद्ध नहीं होता, वेदों के प्रमाणों से कोई ऐसी गलत बात निकाल कर तो दिखाइए।

आरोप-
यदि सोम कोई ऐसा औषधीय पौधा है जिसे आज कोई नहीं पहचानता, तब तो सोम से सम्बंधित सभी वेद मन्त्र अपना अर्थ खो देंगे।

अग्निवीर*: *हम पहले ही बता चुके हैं कि वेदों में सोम का अर्थ आनन्द प्रदान करने वाला ईश्वर है। लेकिन,यदि सोम कोई लुप्त औषधीय पौधा मान लें, तब भी इससे वेद मन्त्र अप्रासंगिक नहीं हो जाते। इस का मतलब सिर्फ यह है कि हमें इस कल्याणकारी औषध को खोजने का पूरा प्रयास करना चाहिए। सोम नाम से भी पुकारी जाने वाली कुछ औषधियों का नाम हम बता चुके हैं।

नई कुरान जैसी किताब जो कि अपने लोगों को बिना समझे ही आंखे मूंदकर विश्वास करने को कहती है (कुरान के आज के विद्वानों के अनुसार तो जीवन सिर्फ एक ही है!) उस में अनगिनत ऐसी आयतें हैं जो संदिग्ध और इंसानी समझ से परे हैं। फ़िर जब नासमझ लोगों को वेद मन्त्र समझ में नहीं आते तो इस में क्या दिक्कत है?

आखिर वेद तो आप को असंख्य जन्म देते हैं- अपनी समझ को बढ़ाने के लिए। और इसके लिए यह जरूरी नहीं है कि आप आंखे मूंदकर वेदों पर ईमान लाएं, किसी जन्नत में जाने के लिए।

आरोप-
वेद अगर नशे की बात नहीं कर रहे हैं तो फिर नशे से सम्बंधित शब्द सोम, मद, मधु इत्यादि वेद में क्यों हैं ?

अग्निवीर*: *बड़ा ही मूर्खता पूर्ण सवाल है।

१*. *वेदों में वे सभी प्रथम शब्द विद्यमान हैं जो ‘मूल अर्थ’ को नियत करते हैं। इन्हीं के आधार पर बाद में शब्दावलियों का निर्माण हुआ। जैसे- ‘सोम’ अर्थात आनन्द दायक। समझदार इसका उपयोग स्नेहशील व्यक्ति इत्यादि के सन्दर्भ में करते हैं लेकिन बुद्धि भ्रष्ट लोग- उन्हें आनंद प्रदान करने वाली ‘शराब’ को इससे इंगित करते हैं। अन्य शब्दों के भी ऐसे ही गलत प्रयोग हो रहे हैं।

२*.* दूसरी भाषाओँ में भी ऐसे उदाहरण देखे जा सकते हैं। अंग्रेजी के ‘गे’ (gay) शब्द की दुर्गति इस की मिसाल है। गे (gay) अर्थात खुशमिज़ाज व्यक्ति। परन्तु, यह शब्द आज किस सन्दर्भ में प्रयोग हो रहा है, सब जानते हैं। रोचक बात
यह है कि अंग्रेजी के पुराने शब्दकोशों में कहीं भी इस शब्द का अर्थ ‘समलैंगिक’ नहीं हैं। मांस का अर्थ केवल गोश्त (meat) ही नहीं है बल्कि किसी चीज़ का सत्व भी मांस कहलाता है, जैसे आम का सत्व = आम का गूदा। असल में सभी शब्द एक से अधिक अर्थ रखते हैं। बिगडैल लोग ही शब्दों को गलत सन्दर्भों में
प्रयोग करके उनके मूल अर्थ को बिगाड़ने का काम करते हैं।

३*. *इन लोगों को वेदों में ऐसी उलटी-पुलटी चीज़ें दिखाई देने का कारण केवल यही है कि या तो उन्होंने वेदों का अध्ययन किया ही नहीं या फिर वे वेदों के प्रति द्वेष भावना से ग्रसित हैं।

परन्तु हम सभी के लिए वेद बुद्धि और ज्ञान का भंडार हैं, सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा देने वाले और गलत कामों से बचाने वाले हैं।

वेदों का ‘सोम रस’ ईश्वर की वह दिव्य देन है जो हमें दुखों, निराशाओं, शंकाओं, पाप कर्मों आदि सभी से ऊपर उठाती है और अत्यंत उत्साह के साथ उच्च कर्म करने की प्रेरणा और परम आनंद प्रदान करती है।

आइए, सभी मिल कर वेदों के इस सोम को सम्पूर्ण सृष्टि में बिख़रा दें, जिससे सारा जगत ‘अमरता’ की ओर चले।

ऋग्वेद ९*.*१ ०१*.*१३- सोम की पुकार वीरों के लिए है। सोम की पुकार यज्ञ (श्रेष्ठ परोपकारी कार्य) के लिए है। उन योद्धाओं के लिए है जो सतत संघर्ष और अथक प्रयास से स्वयं को दीप्त करते हैं। हे सोम के उपासकों* *! मोह और लालच को विनष्ट कर दो और सोम की सुरीली धुन को सुनो।

सन्दर्भ*: *पं*.*चमूपति, प्रो*.*राजेन्द्र जिज्ञासु और प्रो*.*धर्मदेव विद्यामार्तंड के कार्य।


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