Thursday, December 13, 2018

वेदों में गौदुग्ध





वेद के अनेक मंत्रों में गोदुग्ध से शरीर को शुद्ध, बलिष्ठ और कान्तिमान् बनाने का वर्णन मिलता है। इससे सिद्ध होता है कि वैदिक गृहस्थ को गौ और उसके द्वारा दिए गए दूध आदि पदार्थ कितने अधिक प्रिय हैं। हम वेदादि शास्त्रों में यह पाते हैं कि न केवल प्रत्येक गृहस्थ अपने लिए परमेश्वर से गोधन की याचना करता है अपितु यजुर्वेद (२२.२२) के एक मंत्र में सम्पूर्ण राष्ट्र के निवासिओं के लिए गोधन की प्रार्थना की गई है-
​‘‘आ ब्रह्मन ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायातामा राष्ट्रे राजन्यः…’’
इस मंत्र का विनियोग शतपथ ब्राह्मण में किया गया है।

अध्वर्यु इस मंत्र के द्वारा अश्वमेध करने वाले सम्राट के राष्ट्र में अभ्युदय की प्रार्थना परमेश्वर कर रहा है। वह कहता है- ‘‘हे परमेश्वर! इस राष्ट्र में ब्रह्मतेज वाले ब्राह्मण उत्पन्न हों, शस्त्र चलाने में निपुण, दूर का निशाना बींधने वाले, महारथी, शूर क्षत्रिय हों, दूध देने वाली गौएँ उत्पन्न हों, भार उठाने में समर्थ बैल हों, शीघ्रगामी घोड़े हों, नगरो की रक्षा करने वाली स्त्रियां हों, इस यजमान के पुत्र विजयी, रथारोही, सभाओं में जाने योग्य और युवा हों, जब-जब हम चाहें तब-तब बादल बरसा करें, अनाज फल वाले होकर पका करें, हमें अलब्ध ऐश्वर्य की प्राप्ति करें और हमें प्राप्त की रक्षा का सामथ्र्य मिले।’’ उपरोक्त मंत्र में राष्ट्र के अभ्युदय के लिए दूध देने वाली गौओं की प्राप्ति अत्यंत महत्त्वपूर्ण मानी गई है।

ऋग्वेद के षष्ठं मण्डल के अट्ठाइसवें सूक्त में आठ मंत्र हैं। पहले मंत्र में कहा गया है-
आ गावो अग्नमन्नुत भद्रमक्रन्त्सीदन्तु गोष्ठे रण्यन्त्वस्मे।
​प्रजावतीः पुरुरूपा इह स्युरिन्द्राय पूर्वीरुषसो दुहानाः।। (१)
अर्थात् गौएँ आवें और हमारे गोष्ठ अर्थात् गौओं के रहने के स्थान में बैठें अर्थात् रहें और हमारे लिए मंगल करें। हम में रहती हुई रमण करें अर्थात् आनन्दपूर्वक रहें। यहां हमारे घर में ये गौएँ सन्तानों वाली हो कर बहुत रूपों वाली अर्थात् अनेक प्रकार की होती रहें और इस प्रकार सम्राट के लिए बहुत उषः कालों अर्थात् दिनों तक दूध देने वाली बनी रहें।

दूसरे मंत्र में कहा गया है-
​इन्द्रो यज्वने पृणते च शिक्षत्युपेद् ददाति न स्वं मुषायति।
​भूयोभूयो रयिमिदस्य वर्धयन्नभिनने खिल्ये नि दधाति देवयुम्।। (२)
​अर्थात् सम्राट राज्य संगठन के लिए अपना भाग दान करने वाले ओर इस प्रकार राज्य की आवश्यकताओं की तृप्ति करने वाले के लिए समीप पहुंच कर अपनी रक्षा देता है। उसके गोधन को अपहरण नहीं करता या नहीं होने देता है। इसके गोधन को बार-बार बढ़ाता हुआ सम्राट रूप देव को अर्थात् राज्य के भले को चाहने वाले को अभेद्य स्थान में रखता है। क्योंकि यहां पर गौओं का प्रसंग चल रहा है, इसलिए रयि शब्द का अर्थ गोधन समझना चाहिए।

तीसरे मंत्र में कहा गया है-
न ता नशन्ति न दभाति तस्करो नासामाममित्रो व्यथिरा दधर्षति।
देवांश्च याभिर्यजते ददाति च ज्योगित् ताभिः सचते गोपतिः सह।। (३)
​अर्थात् वे गौएँ नष्ट नहीं होतीं, चोर उन पर प्रहार नहीं करता, शत्रु का पीड़ा देने वाला शस्त्रादि इनका घर्षण नहीं करता और यह गौओं का रक्षक पुरुष जिनके द्वारा, जिनसे दुग्ध घृत आदि से देवयज्ञ करता है और दान कर पाता है, उन गौओं के साथ चिरकाल तक ही समवेत होता है। इन गौओं के द्वारा उसके सब यज्ञ ठीक प्रकार चलते हैं।

उक्त तीन मंत्रों से हमें निम्न शिक्षाएं मिलती हैं-
१. प्रत्येक गृहस्थ को अपने घर में गोष्ठ अथवा गौओं के रहने का स्थान अवश्य बनाना चाहिए।
२. गौ पालने वालों को गौओं की उत्तमोत्तम सन्तान अर्थात् बछड़े और बछड़ियां तैयार करने चाहिएं, जिनसे पहले की अपेक्षा अधिक दूध और मक्खन उत्पन्न हो।
३. जिस प्रकार घर के मनुष्य मिल कर आनन्द से रहते हैं, उसी प्रकार गौएँ भी हम में मिल कर आनन्द से रहें। हम अपने लिए जो आराम चाहते हैं, उसी प्रकार के आराम का प्रबन्ध गौओं के लिए भी करें।
४. गौओं को सम्राट द्वारा रक्षा प्राप्त होने से वे नष्ट नहीं होने पातीं हैं।
५. किसी की गौ को चोर नहीं चुरा सकते हैं और शत्रु लोग उनको किसी प्रकार की पीड़ा नहीं दे सकते हैं।
६. गोपति को अपनी गौओं से सदा देवों का यजन और अतिथि सत्कार करते रहना चाहिए।

षष्ठं मण्डल के उक्त सूक्त के सातवें मंत्र में कहा गया है-
प्रजावतीः सूयवसं रिशन्तीः शुद्धा अपः सुप्रपाणे पिबन्तीः।
मा वः स्तेन ईशत माघशंसः परि वो हेती रुद्रस्य वृज्याः।। (७)
अर्थात् उत्तम घास को खाती हुई, उत्तम पानी पीने के स्थानों में निर्मल जल पीती हुई, हे गौओं! तुम पुत्र-पौत्रों से युक्त हो कर रहो। चोर और पाप करने वाला पुरुष तुम पर प्रभुता न कर सके। परमात्मा का प्रहरण तुम्हें छोड़े रखे अर्थात् तुम शीघ्र न मरो, प्रत्युत दीर्घ आयु वाले होओ।

उक्त मंत्र से हमें निम्न शिक्षाएं मिलती हैं-
१. गौओं को खाने के लिए दिया जाने वाला घास उत्तम होना चाहिए।
२. उनके पीने का पानी भी स्वच्छ होना चाहिए।
३. हमें अपनी गौवों की चोर-डाकुओं से रक्षा करनी चाहिए।
४. गौवों की दूध देना बन्द करने के बाद भी सेवा और रक्षा करते रहना
चाहिए।

गौ की महिमा का विस्तृत वर्णन ऋग्वेद के दशं मण्डल के सूक्त १६९ में भी मिलता है। इस सूक्त के मंत्रों में विशेष रूप से कहा गया है कि हमारे पास ‘सरूपाः, विरूपाः और एकरूपाः’ श्रेणियों की गौएँ होनी चाहिएं। किन्हीं के दूध में मक्खन अधिक हो, किन्हीं के दूध में मलाई अधिक हो और किन्हीं के बछड़े अधिक शक्तिशाली बैल बन सकें। यह भी कहा गया है कि ‘पर्जन्य गौओं के लिए बहुत बड़ा सुख देवे’, इस वाक्य का भावार्थ यह है कि जहां तक हो सके वर्षा से उत्पन्न जंगल के घास को गौओं को अधिक खिलाना चाहिए। गौओं कोे जंगल में चरने के लिए भेजना चाहिए। जहां तक सम्भव हो सके उन्हें वर्षा का शुद्ध जल पिलाना चाहिए। ऋग्वेद (१॰.१६९.३) में कहा गया है कि राष्ट्र के सभी लागों को गौ का दूध पीना चाहिए। गौएँ अपने शरीर से उत्पन्न दूध को देवों को भेजती हैं।

वेद में गौहत्या का विरोध-
वेद में अनेक स्थानों पर गौ को ‘अघ्न्या’ कहा गया है। यजुर्वेद (१३.४३) में कहा गया है-‘‘गां मा हिंसी’’ अर्थात् गौ की हिंसा मत करो। ऋग्वेद के एक मंत्र में कहा गया है-
माता रुद्रणां दुहिता वसूनां स्वसादित्यानामृतस्य नाभिः।
प्र नु वोचं चिकितुषे जनाय मा गामनागामदितिं वधिष्ट।। (८.१॰१.१५)
अर्थात् गौ राष्ट्र के रुद्र और आदित्य ब्रह्मचारी रह कर विद्या प्राप्त करने वाले प्रजाजनों की माता, पुत्री और बहिन है। इस मंत्र का भावार्थ यह है कि प्रजाजनों को गौ के साथ माता, पुत्री और बहिन के समान प्रेम भाव रखना चाहिए। गौ अमृत की नाभि अर्थात् केन्द्र है क्योंकि उससे अमृत जैसे गुणों वाला दूध प्राप्त होता है। मैं परमात्मा, ज्ञानवान् पुरुषों को आज्ञा देता हूँ कि वे निष्पाप और कभी न काटी जाने योग्य गौ को न मारें।

गोदुग्ध से सब शक्तियों का विकास-
अथर्ववेद के तृतीय काण्ड के चैदहवें सूक्त में छः मंत्र हैं जिनमें गृहस्थियांे द्वारा किस प्रकार गायों का पालन किया जाए इस पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। कहा गया है कि गौओं का निवास स्थान साफ-सुथरा हो, पानी और घास भी शुद्ध हो। गोदुग्ध का प्रयोग हमें ‘अर्यमा, पूषा, बृहस्पति व इन्द्र’ बनाता है। यह हमारे जीवन में वसुओं का पोषण करता है। यह भी कहा गया है कि गौओं को किसी प्रकार का भय प्राप्त न हो। वे सब प्रकार के रोगों से रहित हों। ऐसी गौएँ शान्ति देने वाला मधुर दुग्ध प्राप्त कराती हैं। गौओं के लिए गोष्ठ सुखद हों। इन गोष्ठों में रहने वाली गौवें शालिधान्य की शक्ति की भांति हमें शक्ति प्राप्त कराने वाली हों।

गोमूत्र और गोबर का उपयोग-
गौ का केवल दूध ही नहीं अपितु गोमूत्र और गोबर भी अत्यंत लाभदायक है। गोमूत्र से अनेक रोगों का उपचार किया जा सकता है। गोमूत्र से यकृत के रोग, बवासीर, जलोदर, उदावर्त, चर्मरोग, शोथ, उदर-कृमि, हृदय रोग आदि का उपचार किया जाता है। गोबर शोधक, दुर्गन्धनाशक, सारक, शोषक, बलवर्धक और कान्तिदायक है। आयुर्वेदीय ग्रन्थों में पंचगव्य-घृत का चिकित्सा की दृष्टि से बहुत महत्त्व माना गया है। पंचगव्य-घृत के सेवन से उन्माद, अपस्मार, शोथ, उदररोग, बवासीर, भगंदर, कामला, विषमज्वर, और गुल्म आदि का उपचार किया जाता है। सर्पदंश के विष को नष्ट करने हेतु भी यह उत्तम औषधि मानी गई है। भूमि की उर्वरता और उत्पादन शक्ति बनाय रखने के लिए उत्तम खाद की आवश्यकता होती है। वृद्ध हो जाने अथवा रोग के कारण गाय यदि दूध और बछड़े देने योग्य न रहे, ऐसी स्थिति में भी जब तक वह जीवित रहती है गोबर के रूप में खाद देती रहती है।

एक वैज्ञानिक डा0 बाॅयलर जो अंग्रजी शासन काल में भारतीय कृषि की जांच करने आए थे, ने गाय के गोबर का विश्लेषण करके बताया है कि भारत में गोवंश से प्राप्त होने वाले गोबर से ही एक करोड़ रुपये के मूल्य के की खाद प्रतिदिन प्राप्त हो सकती है। आज के मूल्यों को देखते हुए यह धनराषि कम से कम 100 करोड़ रुपये प्रतिदिन से अधिक की होगी। कृत्रिम रासायनिक खाद से भूमि की उर्वरा शक्ति का ह्रास होता है और अन्ततोगत्वा वह बंजर भूमि में परिवर्तित हो जाती है। इसलिए गोबर की खाद कृषि के लिए अत्यंत लाभदायक है।

वेदों के अनुसार वास्तविक गोवर्धन पूजा
वैदिक ऋषियों ने कहा है-‘‘गावो विश्वस्य मातरः’’ अर्थात् गौएँ विश्व की माता के तुल्य हैं। ये विश्व का पोषण करने वाली हैं। हम प्रत्येक वर्ष की भांति इस वर्ष भी, आज के पावन दिन को गोवर्धन पूजा दिवस के रूप में मना रहे हैं। हमारी वास्तविक गोवर्धन पूजा तभी सम्भव होगी जब हम गाय को बूढ़ी हो जाने पर भी माता के समान आजीवन उसकी सेवा करते हुए किसी कसाई के हाथों नहीं बेचेंगे और न बिकने देंगे और हम वेदादि शास्त्रों में बताए गए नियमों के अनुकूल गोसेवा और गोरक्षा करते हुए उनका संवर्धन

परिचय - कृष्ण कान्त वैदिक


सम्पादक : विजय कुमार

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