।। श्री ।।
*सूक्ष्म गव्य चिकित्सा*
(भाग 2)
*जरूरत अविष्कार की जननी है।*
आजतक बहुत सारे अविष्कार, शोध, नयी चिजे जरूरत के अनुसार हो गई है। नये अविष्कार के लिए जरूरते बाध्य बनाते है। पुरे विश्व में ऐसा ही होता आ रहा है। जरूरत पडने पर लोग नये नये तरिके ढुंडते है और इस चक्कर में कोई ना कोई नया अविष्कार उत्पन्न होता है। आज भी हमारे जरूरत के अनुसार ही *सूक्ष्म चिकित्सा* का अविष्कार हो गया है।
औषधी मात्रा देने में और लेने में होनेवाली तकलिफे, औषधी द्रव्योंकी अनुपलब्धता, उसे खाने में आनेवाली दिक्कते, औषधी के विषारी गुणत्व, उसका शरीरपर होनेवाला बुरा असर इससे बचने के लिए सूक्ष्म चिकित्सा बहुत अच्छी पद्धती है।
चरकाचार्य कहते है, *मात्राकालाश्राया युक्ति।* यह सूत्र के अनुसार औषध की मात्रा कम करना और युक्तिपूर्वक उसका इस्तेमाल करना अधिक सयुक्तिक है। वीर्यवान एवं प्रभावी औषधी अत्यल्प मात्रा में प्रयुक्त करनेपर भी अपना प्रभाव और गुणों का त्याग नही करती, ऐसा आजतक आचार्योंका अनुभव है।
*औषधी द्रव्य कौनसी भी अवस्था में अपना स्वभाव नही छोडते* यह सूत्र महत्त्वपूर्ण है। उसे पकाया, उसका काढा बनाया, कल्क बनाया या उसे जला दिया। फिर भी उसके गुण और स्वभाव विद्यमान रहते है। द्रव को भस्म कर दिया तो भी भस्म में बहुत सारे गुणधर्म विद्यमान होते है। बल्कि उसके मनुष्य शरीर के लिए विषारीत्व कम होता है। इसलिए सुवर्ण, ताम्र, रजत आदि के भस्म बनाकर उसका इस्तेमाल औषधी द्रव के रूप मे प्राचीन काल से करते आये है।
*प्रभाव सर्वश्रेष्ठ है।*
चरकाचार्यजी कहते है,
*भूयश्र्चेषां बलाधानं कार्यं स्वरस भावनैः।*
*सुभावितं ह्यल्पमपि द्रव्यं स्यात् बहुकर्मकृत।।*
स्वरस भावनाविधी से अल्प मात्रा में दिया द्रव्य भी बहुत कार्यकारी होता है।
*अल्पस्यापि महार्थत्वं प्रभुतस्याल्पकर्मताम्।*
*कुर्यात संयोग विश्लेष कालसंस्कारयुक्तिभिः।।*
संयोग, विश्लेष, काल, संस्कार और युक्ती इनकी सहाय्यता से अल्प मात्रा में दिए हुए औषधी से भी महार्थत्व अर्थात अधिक परिणाम पाना संभव है।
इसका मतलब ये है की, द्रव को अल्प, बहुअल्प, अल्पतम करने से उसकी परिणामकता और बहुकार्यकारकत्व कम होने के बजाय बढते जाते है। द्रव को सूक्ष्म करने से उसके परिणामकारकत्व बढ जाते है और वह बहुकार्यकारी बन जाते है। सूक्ष्म करने से उसका बल और उसकी शक्ती बढती है।
*सूक्ष्मीकरण से औषधी खत्म नही होती।*
*सूक्ष्मीकरण से औषधी दीर्घकाल हीनवीर्य नही होती।*
एकबार सिद्ध की गयी औषधी से बार-बार वही औषधी से दवाई बना सकते है और उसकी उपयुक्तता मे न्यूनता नही आती।
औषधी का सेवन सरलता से किया जा सकता है।
शिशूओ, बच्चे, महिलाओं के लिए उपयुक्त है। उन्हे कटु, अम्ल, तिक्त आदि रसों का सेवन नही करना पडता।
सूक्ष्म औषधी बनाने के लिए थोडी मात्रा में मूल औषधी लेकर उसकी बडी मात्रा में औषधी बना सकते है, इसलिए औषधी का खर्च बहुत कम आने लगता है। गरीब से गरीब रुग्ण को भी यह दे सकते है।
सूक्ष्म औषधी का रोगनाशक गुण का प्रत्यक्ष अनुभव मिलता है।
औषधी कितनी भी सूक्ष्म, सूक्ष्मतर, सूक्ष्मतम कर दी जाय उसका परिणाम, बल और वीर्य बढ जाता है।
कटु, तिक्त क्वाथ, चूर्ण, गुटीका, वटी, अर्क, आसवारिष्ट, तैल आदिं के
1. बहुप्रमाणत्व – बहुत मात्रा में लेने पडना।
2. अरुची उत्पादकत्व – मुह में जाते ही अरूची उत्पन्न होती है, बालक, महिलाएँ और कई सारे लोग इसलिए ऐसी औषधी लेने से हिचकिचाते है।
3. घृणास्पदत्व – कई सारे लोग मूत्रादिको घृणीत जैसे मानते है। इसलिए वह नही लेते है।
4. अनिष्ट परिणामकत्त्व – कई सारे पदार्थ औषधी मे इस्तेमाल किए जाते है, जिसका शरीरपर दुसरे अनिष्ट परिणाम होते है। जिसे हम साईड इफेक्ट बोलते है। ऐसी मान्यता है की, आयुर्वेद की औषधी के साईड इफेक्ट्स नही है, लेकिन वस्तुतः ऐसा नही है। अनेक सारे रसौषधी के अनेकानेक साईड इफेक्ट्स है।
*सूक्ष्मौषधी में ये सारे दोष निकल जाते है।* औषधी द्रव सिर्फ रोगनिवारण हेतू कार्यकारी होते है।
*अल्पमात्र प्रमाणत्वात् अरूचेः अप्रसंगातः। क्षिप्रं आरोग्यदायित्वात।।*
अल्पमात्रा मे लिए हुए औषधी से अरुची आदि दोष निकलकर सिर्फ वह आरोग्यदायी बन जाती है।
औषधियों का शरीर पर होने वाला कार्य मात्रा पर निर्भर नही होता। औषधी वीर्यप्रधान होती है। वीर्य तेजो वायवीय गुण है। पृथ्वी तत्त्व स्थूल होने से वीर्य का बाधक है। इसलिए स्थूल औषधी की मात्रा जादा देनी पडती है। *औषधी द्रव जितना सूक्ष्म होगा उतनी उसकी मात्रा अल्प होगी और उसका वीर्य तीव्र होगा।*
सूक्ष्म औषधी सस्ती, सुरक्षित, बलवान और लेने में आसान होती है। और सभी को अच्छी लग सकती है। आज के दीनों में *सूक्ष्म औषधीही एक सुरक्षित पर्याय है।* अनेक दुर्धर व्याधियों में वीर्यवान औषधी उपलब्ध होने से भी वह उष्ण, तीक्ष्ण, विषकल्पों के उग्र प्रभाव की होती है। उसका बुरा असर भी पड सकता है। पर ऐसी औषधी का सूक्ष्मीकरण करके उसका प्रयोग कर सकते है।
सूक्ष्म औषधी की प्रायोगिक सुरक्षितता, सौकर्य, सहजता, सुलभता और परिणामकारकता इतर औषधी से जादा है। सूक्ष्म औषधी मे स्थूल द्रव्यों की मात्रा नगण्य होने से उनके विषाक्तता का भय समाप्त हो जाता है।
सूक्ष्म औषधीयाँ विकासी याने शरीर में जाकर उसका कार्य बढाती है, फैलाती है। सूक्ष्म स्रोतोगामी होती है। शरीर के सूक्ष्मातिसूक्ष्म स्रोतस मे वह सहजता से जाकर पहुंचती है।
उसे पेट में जाने की जरूरत ही नही पडती। मुख से ही शोषित होकर अपना कार्य शुरू कर देती है। अधिक मात्रा में औषधी देने से वह आमाशय में जाकर आहार के साथ मिश्र होती है। फिर उसका पाचन होने के बाद फिर रक्त के साथ शरीर में जा सकती है। जिसका पाचन नही हुआ वह बाहर निकल जाती है। बहुत सारे दवाए, आयुर्वेदिक, अँलोपॅथिक टॅबलेट्स, कॅप्सूल्स ऐसे है, जिनका पाचन नही होता। और हुआ तो भी पुरू 100 प्रतिशत औषधी शरीर में नही जाती। अन्न के साथ निचे जाकर बाहर निकल जाती है। 40 ते 60 प्रतिशत औषधी का कुछ काम ही नही होता।
आज के महंगाई के जमाने में अच्छि से अच्छि औषधी को सूक्ष्म बनाकर दे सकते है। सूक्ष्म औषधी बलवान, आशुकारी और सस्ती बनाकर जनसामान्य की सेवा में उपलब्ध करा सकते है।
*सूक्ष्म गव्यचिकित्सा* का उद्देश भी यही है। जन-जन को आरोग्य का लाभ हो। गरीब से गरीब लोगों को भी अच्छि से अच्छि औषधी मिले। *सूक्ष्म गव्यचिकित्सा* मे ये सभी औषधी देशी गाय के गव्य से ही बनाये जाए। आज कितने प्रयास करके भी सभी लोगों के पास देशी गाय का दूध, मूत्र अर्क और उसकी बनाई हुई सभी औषधीयों की उपलब्धता नही है। उसकी कोई पुरी व्यवस्था नही है। गोमूत्रार्क लेने से लोक पिछे हटते है, उनके मन में मूत्र के प्रती बचपण से घृणा उत्पन्न की गयी है। इसलिए वह लेते नही। लेने वाले उसके स्वाद से अप्रसन्न है। शहरों में सभी के पास गाय नही है। और संभालना भी असंभव है। एक खोली में बिस्तर मांडकर रहनेवाला गाय कैसे पाल सकता है। रोजी रोटी के पिछे दौडने वाले गाय कब संभालेंगे? गाय की व्यवस्था कैसी करेंगे। सभी के पास सभी चिजे नही होती। लेकिन सभी को गाय के गव्यों का फायदा पहुंचाने के लिए गव्यों का सूक्ष्मीकरण करना अनिवार्य हो गया है। क्यों की, हर रोज ताजा गोमूत्र, गोमय और दुध लेकर पंचगव्य बनाकर पिना कितने लोगों को संभव है। इसलिए पंचगव्यों का सूक्ष्मीकरण करके उसका परिणाम वही पाकर सभी लोगों तक पहुंचाना बहुत आसान है। इसलिए सूक्ष्म गव्य चिकित्सा आज महत्त्वपूर्ण हो गयी है।
*सूक्ष्म गव्य चिकित्सा* से यह लाभ मिल सकते है।
1. कम से कम मात्रा में अधिक लोगों को लाभ मिले।
2. प्रमाण मे ना के बराबर किंमत में औषध मिले।
3. अमृततुल्य गव्यों का परिणाम बढाते हुए सभी को गव्य मिले।
4. गव्यों के माध्यम से सभी को आरोग्य लाभ हो।
5. गव्यों के लिए गाय का होना अनिवार्य है। अपनी देशी गाय बचे।
6. गाय पालनेवालों को भी गव्यों से फायदा मिले।
7. गव्यों की सवीर्यतावधि बढाना।
8. गव्यों की परिणामकारकता बढाना।
9. गव्यों का बल व शक्ती और बढाना।
10 गव्यों को सभी को सहजता से लेने योग्य बनाना।
इससे
1. सभी को आरोग्य लाभ भी होगा।
2. गाय भी बचेगी और
3. पैसा भी मिलेगा।
(आगे का भाग आगे भाग 3 में)
*ब्रह्मर्षि अधिक देशमुख*
(विद्यावाचस्पती)
*ऋषीगुरूपीठम् ट्रस्ट, पुणे*
*सद्गुरू नॅचरल हेल्थ सेंटर, पुणे* (महाराष्ट्र)
9850666581
*सूक्ष्म गव्य चिकित्सा*
(भाग 2)
*जरूरत अविष्कार की जननी है।*
आजतक बहुत सारे अविष्कार, शोध, नयी चिजे जरूरत के अनुसार हो गई है। नये अविष्कार के लिए जरूरते बाध्य बनाते है। पुरे विश्व में ऐसा ही होता आ रहा है। जरूरत पडने पर लोग नये नये तरिके ढुंडते है और इस चक्कर में कोई ना कोई नया अविष्कार उत्पन्न होता है। आज भी हमारे जरूरत के अनुसार ही *सूक्ष्म चिकित्सा* का अविष्कार हो गया है।
औषधी मात्रा देने में और लेने में होनेवाली तकलिफे, औषधी द्रव्योंकी अनुपलब्धता, उसे खाने में आनेवाली दिक्कते, औषधी के विषारी गुणत्व, उसका शरीरपर होनेवाला बुरा असर इससे बचने के लिए सूक्ष्म चिकित्सा बहुत अच्छी पद्धती है।
चरकाचार्य कहते है, *मात्राकालाश्राया युक्ति।* यह सूत्र के अनुसार औषध की मात्रा कम करना और युक्तिपूर्वक उसका इस्तेमाल करना अधिक सयुक्तिक है। वीर्यवान एवं प्रभावी औषधी अत्यल्प मात्रा में प्रयुक्त करनेपर भी अपना प्रभाव और गुणों का त्याग नही करती, ऐसा आजतक आचार्योंका अनुभव है।
*औषधी द्रव्य कौनसी भी अवस्था में अपना स्वभाव नही छोडते* यह सूत्र महत्त्वपूर्ण है। उसे पकाया, उसका काढा बनाया, कल्क बनाया या उसे जला दिया। फिर भी उसके गुण और स्वभाव विद्यमान रहते है। द्रव को भस्म कर दिया तो भी भस्म में बहुत सारे गुणधर्म विद्यमान होते है। बल्कि उसके मनुष्य शरीर के लिए विषारीत्व कम होता है। इसलिए सुवर्ण, ताम्र, रजत आदि के भस्म बनाकर उसका इस्तेमाल औषधी द्रव के रूप मे प्राचीन काल से करते आये है।
*प्रभाव सर्वश्रेष्ठ है।*
चरकाचार्यजी कहते है,
*भूयश्र्चेषां बलाधानं कार्यं स्वरस भावनैः।*
*सुभावितं ह्यल्पमपि द्रव्यं स्यात् बहुकर्मकृत।।*
स्वरस भावनाविधी से अल्प मात्रा में दिया द्रव्य भी बहुत कार्यकारी होता है।
*अल्पस्यापि महार्थत्वं प्रभुतस्याल्पकर्मताम्।*
*कुर्यात संयोग विश्लेष कालसंस्कारयुक्तिभिः।।*
संयोग, विश्लेष, काल, संस्कार और युक्ती इनकी सहाय्यता से अल्प मात्रा में दिए हुए औषधी से भी महार्थत्व अर्थात अधिक परिणाम पाना संभव है।
इसका मतलब ये है की, द्रव को अल्प, बहुअल्प, अल्पतम करने से उसकी परिणामकता और बहुकार्यकारकत्व कम होने के बजाय बढते जाते है। द्रव को सूक्ष्म करने से उसके परिणामकारकत्व बढ जाते है और वह बहुकार्यकारी बन जाते है। सूक्ष्म करने से उसका बल और उसकी शक्ती बढती है।
*सूक्ष्मीकरण से औषधी खत्म नही होती।*
*सूक्ष्मीकरण से औषधी दीर्घकाल हीनवीर्य नही होती।*
एकबार सिद्ध की गयी औषधी से बार-बार वही औषधी से दवाई बना सकते है और उसकी उपयुक्तता मे न्यूनता नही आती।
औषधी का सेवन सरलता से किया जा सकता है।
शिशूओ, बच्चे, महिलाओं के लिए उपयुक्त है। उन्हे कटु, अम्ल, तिक्त आदि रसों का सेवन नही करना पडता।
सूक्ष्म औषधी बनाने के लिए थोडी मात्रा में मूल औषधी लेकर उसकी बडी मात्रा में औषधी बना सकते है, इसलिए औषधी का खर्च बहुत कम आने लगता है। गरीब से गरीब रुग्ण को भी यह दे सकते है।
सूक्ष्म औषधी का रोगनाशक गुण का प्रत्यक्ष अनुभव मिलता है।
औषधी कितनी भी सूक्ष्म, सूक्ष्मतर, सूक्ष्मतम कर दी जाय उसका परिणाम, बल और वीर्य बढ जाता है।
कटु, तिक्त क्वाथ, चूर्ण, गुटीका, वटी, अर्क, आसवारिष्ट, तैल आदिं के
1. बहुप्रमाणत्व – बहुत मात्रा में लेने पडना।
2. अरुची उत्पादकत्व – मुह में जाते ही अरूची उत्पन्न होती है, बालक, महिलाएँ और कई सारे लोग इसलिए ऐसी औषधी लेने से हिचकिचाते है।
3. घृणास्पदत्व – कई सारे लोग मूत्रादिको घृणीत जैसे मानते है। इसलिए वह नही लेते है।
4. अनिष्ट परिणामकत्त्व – कई सारे पदार्थ औषधी मे इस्तेमाल किए जाते है, जिसका शरीरपर दुसरे अनिष्ट परिणाम होते है। जिसे हम साईड इफेक्ट बोलते है। ऐसी मान्यता है की, आयुर्वेद की औषधी के साईड इफेक्ट्स नही है, लेकिन वस्तुतः ऐसा नही है। अनेक सारे रसौषधी के अनेकानेक साईड इफेक्ट्स है।
*सूक्ष्मौषधी में ये सारे दोष निकल जाते है।* औषधी द्रव सिर्फ रोगनिवारण हेतू कार्यकारी होते है।
*अल्पमात्र प्रमाणत्वात् अरूचेः अप्रसंगातः। क्षिप्रं आरोग्यदायित्वात।।*
अल्पमात्रा मे लिए हुए औषधी से अरुची आदि दोष निकलकर सिर्फ वह आरोग्यदायी बन जाती है।
औषधियों का शरीर पर होने वाला कार्य मात्रा पर निर्भर नही होता। औषधी वीर्यप्रधान होती है। वीर्य तेजो वायवीय गुण है। पृथ्वी तत्त्व स्थूल होने से वीर्य का बाधक है। इसलिए स्थूल औषधी की मात्रा जादा देनी पडती है। *औषधी द्रव जितना सूक्ष्म होगा उतनी उसकी मात्रा अल्प होगी और उसका वीर्य तीव्र होगा।*
सूक्ष्म औषधी सस्ती, सुरक्षित, बलवान और लेने में आसान होती है। और सभी को अच्छी लग सकती है। आज के दीनों में *सूक्ष्म औषधीही एक सुरक्षित पर्याय है।* अनेक दुर्धर व्याधियों में वीर्यवान औषधी उपलब्ध होने से भी वह उष्ण, तीक्ष्ण, विषकल्पों के उग्र प्रभाव की होती है। उसका बुरा असर भी पड सकता है। पर ऐसी औषधी का सूक्ष्मीकरण करके उसका प्रयोग कर सकते है।
सूक्ष्म औषधी की प्रायोगिक सुरक्षितता, सौकर्य, सहजता, सुलभता और परिणामकारकता इतर औषधी से जादा है। सूक्ष्म औषधी मे स्थूल द्रव्यों की मात्रा नगण्य होने से उनके विषाक्तता का भय समाप्त हो जाता है।
सूक्ष्म औषधीयाँ विकासी याने शरीर में जाकर उसका कार्य बढाती है, फैलाती है। सूक्ष्म स्रोतोगामी होती है। शरीर के सूक्ष्मातिसूक्ष्म स्रोतस मे वह सहजता से जाकर पहुंचती है।
उसे पेट में जाने की जरूरत ही नही पडती। मुख से ही शोषित होकर अपना कार्य शुरू कर देती है। अधिक मात्रा में औषधी देने से वह आमाशय में जाकर आहार के साथ मिश्र होती है। फिर उसका पाचन होने के बाद फिर रक्त के साथ शरीर में जा सकती है। जिसका पाचन नही हुआ वह बाहर निकल जाती है। बहुत सारे दवाए, आयुर्वेदिक, अँलोपॅथिक टॅबलेट्स, कॅप्सूल्स ऐसे है, जिनका पाचन नही होता। और हुआ तो भी पुरू 100 प्रतिशत औषधी शरीर में नही जाती। अन्न के साथ निचे जाकर बाहर निकल जाती है। 40 ते 60 प्रतिशत औषधी का कुछ काम ही नही होता।
आज के महंगाई के जमाने में अच्छि से अच्छि औषधी को सूक्ष्म बनाकर दे सकते है। सूक्ष्म औषधी बलवान, आशुकारी और सस्ती बनाकर जनसामान्य की सेवा में उपलब्ध करा सकते है।
*सूक्ष्म गव्यचिकित्सा* का उद्देश भी यही है। जन-जन को आरोग्य का लाभ हो। गरीब से गरीब लोगों को भी अच्छि से अच्छि औषधी मिले। *सूक्ष्म गव्यचिकित्सा* मे ये सभी औषधी देशी गाय के गव्य से ही बनाये जाए। आज कितने प्रयास करके भी सभी लोगों के पास देशी गाय का दूध, मूत्र अर्क और उसकी बनाई हुई सभी औषधीयों की उपलब्धता नही है। उसकी कोई पुरी व्यवस्था नही है। गोमूत्रार्क लेने से लोक पिछे हटते है, उनके मन में मूत्र के प्रती बचपण से घृणा उत्पन्न की गयी है। इसलिए वह लेते नही। लेने वाले उसके स्वाद से अप्रसन्न है। शहरों में सभी के पास गाय नही है। और संभालना भी असंभव है। एक खोली में बिस्तर मांडकर रहनेवाला गाय कैसे पाल सकता है। रोजी रोटी के पिछे दौडने वाले गाय कब संभालेंगे? गाय की व्यवस्था कैसी करेंगे। सभी के पास सभी चिजे नही होती। लेकिन सभी को गाय के गव्यों का फायदा पहुंचाने के लिए गव्यों का सूक्ष्मीकरण करना अनिवार्य हो गया है। क्यों की, हर रोज ताजा गोमूत्र, गोमय और दुध लेकर पंचगव्य बनाकर पिना कितने लोगों को संभव है। इसलिए पंचगव्यों का सूक्ष्मीकरण करके उसका परिणाम वही पाकर सभी लोगों तक पहुंचाना बहुत आसान है। इसलिए सूक्ष्म गव्य चिकित्सा आज महत्त्वपूर्ण हो गयी है।
*सूक्ष्म गव्य चिकित्सा* से यह लाभ मिल सकते है।
1. कम से कम मात्रा में अधिक लोगों को लाभ मिले।
2. प्रमाण मे ना के बराबर किंमत में औषध मिले।
3. अमृततुल्य गव्यों का परिणाम बढाते हुए सभी को गव्य मिले।
4. गव्यों के माध्यम से सभी को आरोग्य लाभ हो।
5. गव्यों के लिए गाय का होना अनिवार्य है। अपनी देशी गाय बचे।
6. गाय पालनेवालों को भी गव्यों से फायदा मिले।
7. गव्यों की सवीर्यतावधि बढाना।
8. गव्यों की परिणामकारकता बढाना।
9. गव्यों का बल व शक्ती और बढाना।
10 गव्यों को सभी को सहजता से लेने योग्य बनाना।
इससे
1. सभी को आरोग्य लाभ भी होगा।
2. गाय भी बचेगी और
3. पैसा भी मिलेगा।
(आगे का भाग आगे भाग 3 में)
*ब्रह्मर्षि अधिक देशमुख*
(विद्यावाचस्पती)
*ऋषीगुरूपीठम् ट्रस्ट, पुणे*
*सद्गुरू नॅचरल हेल्थ सेंटर, पुणे* (महाराष्ट्र)
9850666581
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