Sunday, January 6, 2019

सूक्ष्म गव्य चिकित्सा भाग 1

।। श्री ।।
*सूक्ष्म गव्य चिकित्सा*
(भाग 1)

गव्य चिकित्सा को बहुत सारे लोग जानते ही है। गव्य से बहुत सारे उत्पाद भी बनाते है, ज्यो की मानवी जीवन के लिए बहुत फायदेमंद और जीवनसुधारू शाबित हुए है।

मुख्य गव्य तीन प्रकार के है।
*1. दुग्ध*
*2. गोमूत्र*
*3. गोमय*
इन तिन्होसे उपप्रकार होते है, और कुल मिलाकर 15 गव्य मिलते है।
*1. दुग्धपंचक*
*2. मूत्रपंचक*
*3. गोमयपंचक*
ऐसे 15 गव्य बनते है। एकेक गव्य से अनेकविध वस्तुओंकी निर्मिती हो सकती है। गव्य का मानवी जीवन में अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। उससे आरोग्यपूर्ण जीवन भी मिलता है और जो कुछ शरीर में गडबडी उभारी जाती है, जिसे बिमारी कहते है, वह भी बिनाऔषधी दुरुस्त होती है। गव्य मानवी शरीर के कौशिकाओं के लिए बहुत उपयुक्त है, कोशिका को ज्यो कुछ लगता है, उसकी आपुर्ती गव्य के द्वारा की जाती है। इसलिए मानवी जीवन के लिए गव्य बहुत फायदेमंद शाबित हुए है।

संस्कारित द्रव्यों की सहाय्यता से रुग्ण व्याधीमुक्त होता है। हम हमारा अन्न भी संस्कार करके ही खाते है। चरकाचार्य के अनुसार जिस द्व्य का उपयोग आरोग्यप्राप्ती के लिए किया जाता है वो द्रव्य औषधी है। इस मत के अनुसार हम ज्यो अन्नग्रहन करते है, वो भी औषधी बन सकती है। सबसे जादा औषधी का कार्य गव्य करते है। उसमे दुध से लेकर घृत औऱ गोमूत्र तक अनेक गव्योंका समावेश है।

*वैद्यो व्याधिं हरेद्येन तद् द्रव्यं प्रोक्तमौषम्।* (अत्रि संहिता)
*तदेव युक्तं भैषज्यं यदारोग्याय कल्पते।* (चरक)
ओष याने कार्यकारी बल। द्रव्य के कार्यकारी बस से आरोग्य प्राप्त होता है। वैद्य जिससे व्याधि का हरण करता है, उसे औषधी कहते है।

औषधी के दो प्रकार होते है।
*1. स्थूल औषधी*
*2. सूक्ष्म औषधी*

स्थूल औषधी हम अर्क, घणवटी, काढा, कल्क, फाट, आसव, चूर्ण, टॅबलेट, कॅप्सूल, सिरप ऐसे नानाविध रूपों में देखते है। स्थूल औषधी पेट में जाती है तब उसका पाचन होना आवश्यक होता है। जिसका पाचन होता है उसका द्राव रक्त में घुलमिलकर बाद मे स्रोतस के माध्यम से शरीरभर जाता है। जिसका पाचन नही होता वह मल के रूप में फ्लश हो जाता है। इस के लिए बहुत समय लगता है। स्थूल औषधी का यही एकमेव मार्ग है, पेट में जाकर पाचन होकर शरीर मे जाना। दुसरा मार्ग इंजेक्शन का है। जो डायरेक्ट रक्त मे छोड दिया जाता है।

सूक्ष्म औषधी का तरिका भिन्न है। सूक्ष्म औषधी जीभ और नासिका के माध्यम सें तुरंत शरीर के स्रोतस मे घुलमिल जाती है। इसका परिणाम बहुत जल्दी होता है। जिस में नासिका का उपयोग किया जाता है, उसे *यज्ञ चिकित्सा* कहते है, और जीभ का उपयोग जिस में किया जाता है, उसे *सूक्ष्म गव्य चिकित्सा* कह सकते है।

सूक्ष्मौषधी का उपयोग होमिओपॅथी में भी किया गया है। और सूक्ष्म आयुर्वद में भी किया जाता है। दोनों की थोडी-थोडी भिन्न भिन्न प्रक्रिया है। अपनी हमारी *सूक्ष्म गव्य चिकित्सा* की प्रक्रिया और प्रणाली और थोडीसी अलग है। इस में जीभ इस ज्ञानेंद्रिय का इस्तेमाल किया जाता है। इस में औषध की मात्रा भी बहुत अल्प मात्रा में लगती है। इस के और फायदे हम आगे देखेंगे।

*औषधी गुण*
*अल्पमात्रं महावेगं बहुदोषहरं सुखम्।*
*लघुपाकं सुखास्वादं प्रीणनम् व्याधिनाशन्।।*
*अनपाय्यविपन्नं च नातिग्लानिकरं च यत्।*
*गंधवर्णरसोपेतं विद्यन्मात्रावदौषधम्।।* (च.सि. 6.12.13)

*1. अल्पमात्र –* औषधी की मात्रा हमेशा अल्प होनी चाहिए।
*2. महावेग –* औषधी त्वरित कार्य करनेवाली होनी चाहिए। थोडीसी ही लेने से उसका तुरंग परिणाम दिखना चेहीए। औषधी महिनो न् महिने लेते रहे और परिणाम की राह देखते रहे, ऐसा नही होना चाहिए। औषधी लेते ही उस क्षण से उसका परिणाम दिखना चाहिए।
*3. बहुदोषहर –* यदी एकही औषधी का सेवन किया होगा फिर भी वह बहुत दोषो को दूर करनेवाली होनी चाहिए।
*4. सुखम् –* औषधी प्राशन सुखकर होनी चाहिए और औषधी लेने के बाद भी कुछ पिडा न होनी चाहिए। औषधी का सभी परिणाम सुखद होना चाहिए।
*5. लघुपाक –* औषधी शरीर में जाने से वह पाचनसुलभ होनी चाहिए। (सुक्ष्मौषधी का पाचन का कोई संबंध ही नही है। पाचन के सिवा वह रक्त में औऱ शरीर के विभिन्न स्रोतस में तुरंत घुलमिल जाती है।)
*6. सुखास्वाद -* औषधी का स्वाद सुखकर होना चाहिए। वह रुचीकर भी होनी चाहिए। औषध लेते समय घृणा, नॉशिआ, कटुता, मुंह फेर करना नही होना चाहिए।
*7. प्रीणन -* औषधी लेतेसमय और औषध लेने के बाद प्रसन्नता महसूस होनी चाहिए।
*8. व्याधिनाशक -* जो औषधी के सेवन किया है, उस औषधी व्याधी दूर करने के प्रयोजन से ली जाती है। तो वह औषधी रोग को दूर करने में समर्थ होनी चाहिए। उसमें रोगनिवारक शक्ती होनी चाहिए।
*9. अनपाय्य -* औषधी से दुसरा कौनसा भी गंभिर विकार न होना चाहिए। आज औषधी खाकर लोग मरते है। औषध खाकर मरनेवालों का पुरे विश्व में चौथा नंबर है। औषधी विकाररहित होनी चाहिए।
*10. अविपन्न -* औषधी में कौनसी भी त्रुटी, या भूल-चूक न होनी चाहिए। पूर्णतः निर्दोष होनी चाहिए।
*11. नातिग्लानिकरं -* औषध खाने के बाद ग्लानी या निंद नही आना चाहिए।
*12. गंधवर्णरसोपेतं -* इष्ट गंध, वर्ण और रसयुक्त होना चाहिए।

ऐसी औषधी लेते ही शरीर के स्रोतस में सहजता से घुलमिल होना जाहिए। आयुर्वेदानुसार शरीर मे 13 स्रोतस है। उसकी थोडी चानकारी लेंगे।

*स्रोतस स्वरूप*
आयुर्वेदज्ञो ने स्रोतस के निम्न स्वरुप नाम और कार्य के अनुसार स्वीकृत किये हैं
१. प्राणवह स्रोतस
स्वरुप - नाडी 
कार्य - श्वास, प्रश्वास
दोष संबंध - वायु

२. उदकवह स्रोतस
स्वरुप - रसायनी
कार्य - उदक संवहन
दोष संबंध - कफ

३. अन्नवह स्रोतस
स्वरुप - मार्ग
कार्य - अन्न ग्रहण
दोष संबंध - पित्त

४. रसवह स्रोतस
स्वरुप - रसवाहिनी
कार्य - रससंवहन
दोष संबंध - कफ

५. रक्तवह स्रोतस
स्वरुप - ग्रंथि
कार्य - रक्तसंवहन
दोष संबंध – पित्त

६. मांसवह स्रोतस
कार्य - मॉस संवहन
दोष संबंध – कफ

७. मेदोवह स्रोतस
कार्य - मेदसंवहन
दोष संबंध – कफ

८. अस्थिवह स्रोतस
दोष संबंध – वायु

९. मज्जावह स्रोतस
दोष संबंध – कफ

१०. शुक्रवह स्रोतस
स्वरुप - पंथान
कार्य - शुक्र संवहन
दोष संबंध – कफ

११. मूत्रवह स्रोतस
स्वरुप - मार्ग
कार्य - मूत्र संवहन
दोष संबंध – कफ

१२. पुरीषवह स्रोतस
स्वरुप - मार्ग
कार्य - पुरीष संवहन
दोष – वायु

१३. स्वेदवह स्रोतस
स्वरुप - शारीर छिद्र
कार्य - स्वेद संवहन
दोष संबंध – पित्त

मूल स्रोतस 13 है, लेकिन
*आचार्य सुश्रुत ने स्तन्यवह स्रोतस और आर्तववह स्रोतस का अतिरिक्त वर्णन किया है*

१४. स्तन्यवह स्रोतस
स्वरुप - शरीर छिद्र
कार्य - स्तन्य संवहन
दोष संबंध - कफ

१५. आर्तववह स्रोतस
स्वरुप - मार्ग
कार्य - आर्तव संवहन
दोष - पित्त।

*(यस्य) विवरणे (शक्तिः स) सूक्ष्मः।*
जो द्रव्य शरीर में गहराई तक पहुंचता है वह सूक्ष्म द्रव है।
*सूक्ष्मस्तु सौक्ष्म्यात सूक्ष्मेषु स्रोतः स्वनुसरः स्मृतः।*
अत्यंत छोटे छोटे अवकाश में घुसने की द्रव्य की स्वयंशक्ती है वह सूक्ष्म गुण है।
*यत् द्रव्यं दैहस्य शरीरस्य सूक्ष्म छिद्रेषु रोमकूपप्रभृतिषु विशेत् प्रवेशं करोति तत् सूक्ष्मम् उच्चते।*
*सूक्ष्मो गुण विशेषः। स्रोतोनुसरणशीलत्वात्।* (शा.सं.प्.ख.4.18)
जो द्रव्य शरीर के सूक्ष्म से सूक्ष्म स्रोतो में शीघ्रता से प्रवेश करके अपना कार्य करता है उसे सूक्ष्म कहते है।
(आगे का भाग 2 में)

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